एक अमेरिकी होने के नाते पिछले पांच दशकों में मैं इतना दुखी और चिंतित पहले कभी नहीं हुआ था, जितना पिछली 6 जनवरी को हुआ। कैपिटल हिल की हिंसा दरअसल अमेरिकी लोकतंत्र के खिलाफ डोनाल्ड ट्रंप के नौ सप्ताह लंबे चुनाव अभियान की परिणति थी। पूर्व उप-राष्ट्रपति जो बाइडन के हाथों सत्ता गंवाने के चंद घंटों के बाद ही ट्रंप आक्रामक हो गए थे। बाइडन को 306 इलेक्टोरल वोट मिले थे, जो 2016 में ट्रंप को मिले वोट के बराबर ही हैं, जिसे तब उन्होंने भारी जीत बताया था। ट्रंप चुनाव अभियान के दौरान बार-बार यह दावा करके तनाव को हवा-पानी दे रहे थे कि अगर वह हारे, तो मतदान में देश भर में की गई व्यापक धोखाधड़ी इसकी वजह होगी। चुनाव के बाद वह सोच-समझकर अपनी इस रणनीति पर आगे बढ़ते गए। सबसे पहले उन्होंने वकीलों की फौज द्वारा चुनाव नतीजों को पलटने के लिए 60 से अधिक मुकदमे दर्ज कराए, जिनका नेतृत्व न्यूयॉर्क सिटी के पूर्व मेयर रूडी गियूलिआनी कर रहे थे। मगर एक को छोड़ सभी में वह नाकाम साबित हुए। फिर, स्विंग स्टेट्स के चुनाव अधिकारियों पर यह दबाव बनाने के लिए उन्होंने खुद उन्हें फोन किया कि या तो वे बाइडन की जीत को प्रमाणित न करें या फिर इतने वोट जुटाएं कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी से आगे दिख सकें। जब यह प्रयास भी विफल हो गया, तब ट्रंप ने अपने उप-राष्ट्रपति माइक पेंस से कहा कि जब मुख्य राज्यों के नतीजों को कांग्रेस में पेश किया जाएगा, तब वह उनको प्रमाणित न करें। पिछले चार वर्षों में ट्रंप के साथ हर मोड़ पर खडे़ रहने वाले उप-राष्ट्रपति के लिए ऐसा करना असंभव था। नतीजतन, आखिरी दांव के रूप में कैपिटल हिल पर चढ़ाई की गई। सुखद है कि यह भी कई कारणों से विफल साबित हुआ, जिनमें एक बड़ी वजह है, अमेरिकी संस्थाओं का मजबूत होना। हालांकि, अपने राष्ट्रपति-काल में ट्रंप ने तमाम संस्थानों को अपने अधीन लाने का हरसंभव प्रयास किया था, लेकिन न्यायपालिका हो या कई राज्य सरकारें या फिर अमेरिका का आजाद मीडिया, सभी ने उनका खासा विरोध किया। बहरहाल, इस घटना के परिणामों का आकलन करना फिलहाल जल्दबाजी होगी, लेकिन कुछ चीजें बिल्कुल स्पष्ट हैं। मसलन, इसने दुनिया भर में अमेरिकी लोकतंत्र की छवि को धक्का पहुंचाया है। यह वह राजनीतिक पूंजी थी, जिसके द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति दुनिया भर में लोकतंत्र को बढ़ावा दे रहे थे। यहां तक कि 6 जनवरी से पहले भी, लोकतांत्रिक नैतिकता का जमकर हवाला दिया जाता था, फिर चाहे ट्रंप लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों पर हमलावर ही क्यों न थे। मगर इस घटना से जो नुकसान पहुंचा है, उसे देखते हुए अंदेशा है कि विश्व नेतृत्व की अपनी पुरानी हैसियत को हासिल करने में अमेरिका को संभवत: दशकों का वक्त लग जाएगा। घरेलू तौर पर भी कैपिटल हिल की घटना का असर ट्रंप के ह्वाइट हाउस छोड़ने के काफी समय बाद तक बना रहेगा। अराजकतावादी, षड्यंत्र बताने वाले सिद्धांतवादी और कैपिटल हिल पर हमला करने वाले दंगे समर्थक अपने नेता का राष्ट्रपति-काल तो नहीं बढ़ा सके, लेकिन आज अमेरिकी समाज में मौजूद खाई व बंटवारे को जरूर बेपरदा कर दिया। अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसी शख्सियतों द्वारा अमेरिका को एक ‘बेहतर संघ’ बनाने के प्रयासों के बावजूद अमेरिकी समाज हमेशा से वैचारिक, मत-संबंधी और नस्लीय विभाजन से ग्रस्त रहा है। हालांकि, मानवाधिकारों के क्षेत्र में अमेरिका ने पिछली आधी सदी में खासा तरक्की की है, और एक समाज के रूप में जातिवादी व कट्टरपंथी तत्वों को हाशिये पर रखने में सफल रहा है। श्वेत राष्ट्रवादियों, आप्रवासी विरोधी समूहों, यहूदी-विरोधी भावनाओं आदि को हवा देना ट्रंप के राष्ट्रपति-काल का मुख्य उद्देश्य रहा। लगातार प्रसारित की जा रही झूठी और गलत सूचनाओं द्वारा वह काफी हद तक रिपब्लिकन पार्टी की पैठ बनाने में सफल भी रहे। कुल 252 रिपब्लिकन सांसदों में से हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में 139 और सीनेट में आठ सांसदों द्वारा इलेक्टोरल कॉलेज के नतीजों को बदलने के लिए हस्ताक्षर करना संकेत है कि रिपब्लिकन पार्टी और अमेरिका को ट्रंप ने किस कदर नुकसान पहुंचाया है। जिन समूहों ने कैपिटल हिल और लोकतंत्र पर हमला किया है, वे बहुत जल्द खत्म नहीं होंगे। वास्तव में, उन्होंने यह संकेत दिया है कि उनकी लड़ाई तो अभी शुरू हुई है।
लिहाजा उन पर सख्त और त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसा होने की उम्मीद है भी, क्योंकि अमेरिकी न्याय विभाग ने पहले से ही उनको सजा देने के लिए मुकदमा चलाने की शुरुआत कर दी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना से उबरने के प्रयास शुरू हो भी चुके हैं। सौभाग्य से अमेरिका के पास जो बाइडन के रूप में अब एक ऐसे राष्ट्रपति हैं, जो इन दोनों मोर्चों पर सुधार को गति देने में सक्षम हैं। जाहिर है, नए राष्ट्रपति के सामने चुनौतियां बड़ी हैं। इनसे पार पाने के लिए योजना, संयम और दृढ़ता की जरूरत होगी। अमेरिका ने करीब 250 वर्षों में जो प्रगति की है, वह एकरूपीय नहीं है। गृह युद्ध, वैश्विक आर्थिक महामंदी, जॉन एफ केनेडी की हत्या जैसे तमाम उठापटक के बाद भी राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्रों की कई ऐतिहासिक उपलब्धियां इसके खाते में हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि दो कदम आगे बढ़कर यह एक कदम पीछे हटा है। जैसे, नस्ल के आधार पर समुदायों को बांटने के लिए बनाए गए जिम क्रो कानूनों को अमल में लाने के बाद की गई मुक्ति की घोषणा। ऐसे में, उम्मीद यही है कि 20 जनवरी को जब जो बाइडन राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे, तब उसके बाद अमेरिका एक नई राह पर आगे बढ़ सकेगा। हालांकि, तब तक डोनाल्ड ड्रंप की तानाशाही प्रवृत्ति और निरंकुश व्यवहार पर लगाम लगानी होगी। 25वें संविधान संशोधन के तहत कार्रवाई से उप-राष्ट्रपति ने मना कर दिया है, अत: अब ट्रंप पर महाभियोग चलाने व पद से हटाने की कवायदें तेज होने लगी हैं। मगर दीर्घावधि में यह जरूरी है कि ट्रंप और उनके कट्टर समर्थकों की इस गैर-अमेरिकी गतिविधि की जिम्मेदारी तय की जाए। यह प्रयास भी करना होगा कि अमेरिका अपना पुराना रुतबा पा सके। इसे फिर से अमेरिका बनाने की जरूरत है, न कि ट्रंप-भूमि। यहां पर लोकतंत्र की जीत पूरी दुनिया में लोकतंत्र समर्थकों की जीत मानी जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)